Tuesday, May 31, 2022

इतिहास और फ़साना: ग़ज़नवी का सोमनाथ मंदिर पर हमला और अजमेर दरगाह

 

डा. मोतिउर रहमान खाँ

कल ऑफिस से निकलते हुए दो सहकर्मियों को बात करते हुए सुना कि ‘अजमेर वाले ख्वाजा साहब ने महमूद ग़ज़नवी को सोमनाथ मंदिर तोड़ने के लिए बुलाया था’। वे बता रहे थे कि उन्हें इसकी जानकारी प्रोफेसर मक्खन लाल तथा मृदुला मुखर्जी के एक प्रोग्राम से मिली जिसे ललन टाप पर उन्होंने देखा था। चूंकि वे जाने माने इतिहासकारों का नाम ले रहे थे, मुझे लगा स्वयं प्रोग्राम देखना पड़ेगा। मैं इस बात को हजम नहीं कर पा रहा था। खैर, मैं ललन टाप का यूट्यूब चैनल भी देखता हूँ और पोर्टल भी देख लेता हूँ और इस पोर्टल की इस खासियत से प्रभावित भी हूँ कि यह समाचार के साथ-साथ मिट्टी की खुशबू भी देता है। इनका बैलन्स तरीका अच्छा लगता है।

घर पहुँच कर यूट्यूब पर ढूँढना शुरू किया तो यूट्यूब का लिंक कुछ ऐसा मिला, ‘‘Somnath Temple पर Mahmud Ghaznavi के हमले का Ajmer Sharif कनेक्‍शन क्‍या है?

, प्रोग्राम सौरभ जी के जायज़ सवालों से शुरू होता है । मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि प्रोफेसर मक्खन लाल के सभी तर्कों से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। उनकी इतिहास लेखन की समझ और सोच की सृजनात्मकता का कायल मैं पहले से रहा हूँ। गंगा घाटी में जंगलों के सफाये के लिए लौह तकनीक के इस्तेमाल की मार्क्सवादी अवधारणा का बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से खंडन करने वाला उनका लेख मेरे मन मस्तिष्क में अलग छवि रखता है। इस प्रोग्राम में उनका तर्क कि तथ्य पवित्र होने चाहिए और इतिहासकार का काम है कि तथ्य कितना भी असहज करने वाला क्यूँ न हो उसे इससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए से मैं पूर्णतः सहमत हूँ। साथ ही प्रोफेसर साहब ने इस बात पर भी जोर दिया कि इतिहासकार कई बार अपने सामाजिक स्थिति, व्यक्तिगत विश्वास तथा उसकी पृष्ठभूमि के अनुसार ‘तथ्यों’ का चुनाव करते हैं। अपनी बातों के समर्थन में वे ई. एच. कार तथा अन्य विद्वानों को भी कोट कर रहे थे। वहीं प्रोफेसर मृदुला मुखर्जी ने ‘तथ्यों’ के चुनाव को एक फ्रेम-वर्क में रखने पर बल दे रहीं थीं। उनका मानना था कि तथ्यों को एक फ्रेम वर्क, एक थीम के बिना समझना मुश्किल होता है। ढेर सारे बिखरे हुए तथ्यों से किसी को कुछ समझ नहीं आएगा। प्रोफेसर मक्खन लाल बहुत ही मधुर एवं सौम्य तथा अपने अग्रज इतिहासकारों के लिए आदर के भाव के साथ उनकी आलोचना कर रहे थे।

इस चर्चा में मुख्य रूप से ‘तथ्य’, ‘तथ्यों का चुनाव’, इतिहास का राजनीतिक उपयोग इत्यादि छाए रहे। ऐसी बहस निश्चित ही जनमानस में इतिहास की चेतना बढ़ाने में उपयोगी साबित होती है। राजनीति और इतिहास लेखन को अलग नहीं किया जा सकता यह एक अकाट्य सत्य है। साम्राज्यवादी इतिहास लेखन, ब्रिटिश साम्राज्य की जरूरतों को ध्यान में रख कर किया गया था जिसका जवाब राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने देने की कोशिश की। कुछ इतिहासकार ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ में विश्वास रखते थे तो कुछ समावेशी राष्ट्रवाद में। एक समय में मार्क्सवादियों का पलड़ा भारी रहा और मार्क्सवादी विचार के अनुसार इतिहास लिखा गया। अब राजनीति ने फिर करवट ली है और पुराने सभी इतिहास का विऔपनिवेशीकरण की बात हो रही है। और मार्क्सवादी इतिहासकारों पर इल्जाम है कि उन्होंने ने असहज करने वाले तथ्य छिपाएँ हैं। वे कौन से तथ्य हैं ? मध्यकाल के मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदूओं पर किए गए ‘नरसंघारों’ और उत्पीड़न के साक्ष्यों को। उन साक्ष्यों को खोज-खोज कर निकाल जा रहा है जिन्हें पहले के इतिहासकारों ने कहीं गुम कर दिया था। और ये साक्ष्य कहाँ से खोजे जा रहे हैं? ब्रिटिश लाइब्रेरी से? अमेरिकन लाइब्रेरी से? राष्ट्रीय अभिलेखागार से? या किसी अन्य नए स्रोत से? नहीं। पहले से छपी, अंग्रेजी पुस्तकों से। हाँ, और कुछ मनगढ़ंत किस्सों से भी। खैर, मैं प्रोफेसर मक्खन लाल की इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि इतिहास अपना जैसा भी है उसके साथ रहना सीखना होगा और इतिहास से भागने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इतिहास को जानना जरूरी है। फिर बात वहीं आकर टिकती है कि आखिर ‘तथ्य’ को ‘तथ्य’ क्या बनाते हैं जिसके आधार पर इतिहास लिखा जाना है? तो उत्तर है ‘साक्ष्य’ अब साक्ष्य को भी तो परखने की आवश्यकता होती है। क्या हर विवरण जो कहीं लिखा है साक्ष्य हो सकता है खासकर वह जिस घटना को बताने का वह दावा करता है? उदाहरण के लिए पृथ्वीराजरासो की एक प्रतिलिपि के अनुसार चंद्र बरदई पृथ्वीराज चौहान से कह रहे हैं की जीत निश्चित ही उनकी होगी क्योंकि ख्वाजा उनके क्षेत्र में हैं और उनका आशीर्वाद उनके साथ है। क्या हम यह आँख मूँद कर मान लें कि ख्वाजा मुइनूद्दीन चिश्ती और पृथ्वीराज चौहान के संबंध बहुत मधुर थे? माना जाता है कि भविष्य पुराण की रचना वेद व्यास ने की है उसमें बताया गया है कि अकबर का जन्म आकस्मिक (अक) वरदान (वर) से हुआ जिस कारण उसका नाम अकबर पड़ा तथा वह अपने पूर्व जनम में मुकुंद नामक ब्राह्मण थे। जिन्होंने शेरशाह को हरा कर सत्ता प्राप्त की। विद्यापति की पुरुषपरीक्षा बताती है कि मुहम्मद गोरी की जीत के पीछे उसके ब्राह्मण मंत्री का हाथ था जिसने गहद्वावल राजा जयचंद के नाराज ब्राहमण मंत्री को अपने साथ मिला लिया था। जाहिर है कि बिन जांच परख के इन वक्तव्यों को साक्ष्य और तथ्य नहीं माना जा सकता। ठीक उसी प्रकार से, जैसा कि प्रोफेसर मक्खन लाल ने इस चर्चा में कहा कि तथ्यों को दबाया गया है और उसके उदाहरण स्वरूप बताया कि अजमेर वाले ख्वाजा साहब ने महमूद ग़ज़नवी को सोमनाथ पर आक्रमण करने के लिए 25-30 चिट्ठियाँ लिखीं। क्या इनका यह वक्तव्य साक्ष्य की जांच से परे तथ्य है? नहीं बिल्कुल नहीं हो सकता ख्वाजा मुइनूद्दीन चिश्ती (1143 -1236 CE) की मृत्यु 1236 ईस्वी में हुई है जबकि महमूद ग़ज़नवी (971-1030 CE) 1025-26 में सोमनाथ पर आक्रमण करता है। वह 25-30 चिट्ठियाँ कहाँ हैं क्या प्रोफेसर साहब बता पाएंगे? हो सकता है प्रोफेसर मक्खन लाल जी मोइज़्उद्दीन ग़ौरी (1162-1206 CE) कहना चाहते हों और ग़लती से ग़ज़नवी कह गए हों। परंतु गौरी ने तो सोमनाथ पर हमला नहीं किया था।

इतिहास लेखन में साक्ष्यों का परीक्षण सबसे पहले आता है। काल निर्धारण तो बहुत सतही जांच होती है उसके बाद साक्ष्य निर्माता की पृष्ठभूमि, उसका भावी उद्देश्य इत्यादि का पता लगाना। फिर कहीं जा कर इतिहासकार अपने थीम के अनुसार उस साक्ष्य का उपयोग कर पाता है। पोलिटिकल नेरेटिव बनाने के लिए कुछ खास मेहनत नहीं लगती। इतिहास लेखन की पेचीदगी उसकी व्याख्या और उसके संदर्भ को साथ मिला कर समझना होता है अलग-अलग कर इतिहास को नहीं समझा जा सकता।  

प्रोफेसर मक्खन लाल जी के इस वक्तव्य ने कि ख्वाजा साहब ने महमूद ग़ज़नवी को चिट्ठी लिख कर सोमनाथ पर आक्रमण करने को बुलाया था ललन टॉप की हेड्लाइन बन गयी और जनमानस के बीच ख्वाजा मुइनूद्दीन चिश्ती की छवि भी धूमिल हुई। इस प्रकार से ‘इतिहास’ का राजनीतिक लाभ किसको मिला  समझा जा सकता है।

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