मुग़ल काल में फारसी साहित्य-संस्कृति *
मुग़लों की भाषा मुख्य रूप से फारसी नहीं थी जिसका ठीक ठाक आंकलन इस बात से भी किया जा सकता है कि बाबर ने अपना स्मृति-ग्रंथ, बाबरनामा तुर्की में लिखा। राजकुमार बाबर का तुर्की भाषा के कवियों तथा लेखकों में अली शेर नवायी (मृ.1526) के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम था। उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी हमायू की मातृभाषा तुर्की ही थी। उसके दरबार में तुर्की कविता को खूब सराहा जाता था। हमायूं जब ईरान से हिंदुस्तान लौटा तो उसके साथ आया बैरम खान भी तुर्की का नामी कवि था। जब गूलबदन बेगम ने हमायूनामा की रचना फारसी में की तो यह बोलचाल वाली कामचलाऊ फारसी थी। हमयूनामा की संपादक तथा अनुवादक एनि एस बेवेरिज का मानना है कि इस ग्रंथ की रचना तुर्की में की गई होगी फिर इसे फ़ारसी में रूपांतरित किया गया होगा। इस समय की अन्य रचनाएँ ठीक इसी प्रकार की सामान्य फ़ारसी में ही लिखी गईं थीं। फिर मुग़लों के समय खासकर अकबर के समय से फ़ारसी साहित्य का इतना बोल बाला कैसे हुआ? मुग़लों के फ़ारसी को दिये गए परश्रय का आखिर कारण क्या था? इस प्रश्न के उत्तर में सहज ही यह कहा जा सकता है कि मुग़लों से पहले ही सल्तनत काल में फ़ारसी ने सारे हिंदुस्तान में अपनी पैठ सरकारी भाषा के रूप में बना ली थी और मुग़लों के पास इसका कोई विकल्प नहीं था। जैसा कि हाफ़िज़ शिराज़ी (मृ.1389) ने अपने एक शेर के माध्यम से कहा है कि हिंदुस्तान में बंगाल तक फ़ारसी एक जन-संपर्क भाषा बन चुकी है। 13वीं-14वीं शताब्दी मसूद साद सलमान, ज़ियाउद्दीन नख्शबी अमीर खुसरो तथा अमीर हसन सीजज़ी जैसे फ़ारसी के विद्वान के लिए जानी जाती है । परंतु थोड़ा ध्यान से अध्यन करने पर यह पता चलता है कि लोदी काल तक हिंदवी का प्रचार प्रसार अधिक तेज़ी से हुआ। यह तेज़ी खासकर, 15वीं शताब्दी के सूफ़ी संतों के लेखन तथा उनकी खांनकहों के पराश्रय के कारण संभव हो पाया। जहां पिछली शताब्दी में मुसलमान संभ्रात तथा धार्मिक वर्ग की भाषा फ़ारसी थी इस शताब्दी में हिंदवी ने यह स्थान ले लिया था। मुल्ला दाऊद की चंदायन तथा मालिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत के माध्यम से हिंदुस्तानी लोक कथा तथा हिंदवी को इस्लामी रहस्यवाद को समझाने के लिए चुनना एक प्रकार से हिंदवी कि बढ़ती लोकप्रियता का संकेत है। लोदी सुल्तानों ने सरकारी दस्तावेज़ों में फ़ारसी के साथ साथ हिंदवी को भी जगह दी। यही बात शेर शाह के समय के दस्तावेज़ों से भी ज्ञात होती है। सूर राजतंत्र अपने दस्तावेज़ों में देवनागरी लीपी का प्रयोग करने लगे थे। अफगानों के बहुत बड़े बड़े अमीर फ़ारसी नहीं बोल पाते थे। इस लिए यह कहना कि मुग़लों ने अफगानों से शासन के साथ साथ फ़ारसी भी विरासत में प्राप्त की थी थोड़ा अटपटा सा लगता है।
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इबादत खाना में अकबर : (फोटो- स्टंडफोर्ड) |
फारसी और ईरान से मुग़लों का संबंध
बाबर ने हिंदुस्तान आने से बहुत पहले ही समरकंद पर क़ब्ज़े तथा उज़्बेक नेता शयबानी खान से अपनी करारी हार का बदला लेने और उसके चंगुल से अपनी बड़ी बहन खानज़ादा बेगम को रिहा कराने के लिए सफ़वी शाह ईस्माइल से मदद ली थी। सफ़वी शाह तथा बाबर का यह संबंध सामरिक गठबंधन मात्र नहीं था। बाबर ने इसके लिए वैचारिक रूप से एक बड़ी क़ीमत चुकाई थी। बाबर सफ़वी शाह इस्माइल का मुरीद बना था तथा उसके किज़िल्बाश मुरीदों की भांति लाल टोप (कुलाह) लगा कर समरकन्द में दाखिल हुआ था। जिसकी उस समय सून्नी उज़्बेकों ने बड़ी भर्त्स्ना की थी। कहने का तात्पर्य यह है कि बाबर तथा ईरान के शाह के बीच का संबंध सांस्कृतिक रूप कहीं महत्वपूर्ण साबित हुआ। शायद यही संबंध हूमायूं के, उसकी शेर शाह के हाथों हार के पश्चात काम आया। हूमायूं ने भी ईरान में शरण ली और अपने पिता के जैसे ही ‘लाल कुलाह’ धारण करने पर मजबूर हुआ और ईरान शाह की मदद से पुनः हिंदुस्तान में अपनी खोई सत्ता वापिस पाने में सफल हो पाया। हूमायूं के साथ बहुत से ईरानी सैनिक अधिकारियों के अलावा फारसी चित्रकार तथा साहित्य के ज्ञाता भी हिंदुस्तान आए। इन सब परिस्थितियों ने फारसी संस्कृति का हिंदुस्तान में पुनः विस्तार किया । अकबर ने इस ओर खास तौर से ध्यान दिया। 994 AH/1585-86 में हकीम हूमान (मशहूर हकीम अबुल फतह जिलनी का भाई) को तूरान व ईरान भेजा गया । उसका मिशन था वहाँ के लोगों का मुग़ल साम्राज्य से दोस्तना संबंध बनाना तथा वहाँ के साहित्यकारों की पहचान करना और उनको मुग़ल साम्राज्य में बसने का न्योता देना। 999 AH/1591 में फैज़ी के नेतृत्व में एक कमिटी का गठन किया गया जिसे ईरान में विद्वमंडली के ऊपर एक रिपोर्ट तैयार करनी थी। फैज़ी ने अपनी रिपोर्ट में चलापी बेग नामक एक विद्वान की प्रशंसा की तथा उसे हिंदुस्तान लाने के लिए अकबर से सिफ़ारिश की। अकबर ने इस प्रस्ताव पर तुरंत कारवाई करते हुए चलापी बेग को हिंदुस्तान आने का न्योता भेजा तथा एक ईरानी व्यापारी को चलापी बेग के हिंदुस्तान आने का बंदोबस्त करने के लिए फरमान जारी किया । चलापी बेग को हिंदुस्तान आने पर आगरा के राजकीय मदरसा का प्रधानाध्यापक बनाया गया। इसी साल मीर सदरुद्दीन मुहम्मद नक़ीब ने अकबर की सेवा स्वीकार्य करने की मंशा जतायी जिसके लिए अकबर ने एक ईरानी व्यापारी, ख़्वाजा चलापी कज़्वीनी को 100 ईरानी तुमान (ईरानी मुद्रा) देकर सदरुद्दीन की हिंदुस्तान यात्रा का प्रबंध करने का हुक्म जारी किया। साथ ही यह भी निर्देश दिया गया कि यदि इससे अधिक खर्च होता है तो ख़्वाजा चलापी या ईरान के किसी व्यापारी जो हिंदुस्तान से व्यापार करता हो से सदरुद्दीन पैसे ले सकते हैं।
सम्राट अकबर की सक्रियता रंग लायी और ईरान के लेखक एवं कवियों की एक बड़ी तादाद हिंदुस्तान आई। कुछ तो अच्छे भविष्य तथा धन के लालच में तो कुछ सफ़वियों की सांप्रदायिक नीतियों के चलते मुग़ल हिंदुस्तान आए वहीं कुछ राजनैतिक उत्पीड़न के कारण। सफवी ईरान की कट्टर शिया धार्मिक नीती के मुक़ाबले अकबर का हिंदुस्तान कहीं सहनशील व सहिष्णु था जो ईरानी साहित्यकारों की आज़ाद सोंच के अधिक अनुकूल था। मीर शरीफ अमूली का हिंदुस्तान आगमन तथा उसके स्वागत को समकालीन इतिहासकर, अब्दुल क़ादिर बदायूनी ने हिंदुस्तान के माहौल का अत्यधिक सहिष्णु होना बताया है। दरअसल, शरीफ अमूली नुकतावी विचार को मानने वाला था, जो एक प्रकार से ईरानी ज्योतिषशास्त्रीय गणनाओं के आधार पर काल-चक्र में विश्वास रखते थे, उनके अनुसार ‘काल’ का अंतिम चक्र ईरानी सत्ता का समय होगा तथा जिसके लिए एक मसीहा अवतरित होगा। कुछ ग्रहों का एक साथ मिलना [conjugation] (जोकि उनके अनुसार 16वीं शताब्दी के अंत तक होना था) एक नए मसीहा के अवतार का समय होगा तथा वही समय इस्लाम के समाप्ती का भी होगा। ऐसे व्यक्ति का हिंदुस्तान आगमन तथा उसके राजकीय स्वागत से बदायूनी की चिंता को समझा जा सकता है। मुज़फ्फर आलम का मानना है कि केवल मुग़ल हिंदुस्तान का सहिष्णु वातावरण ही ऐसे विद्वानो के आगमन का कारण नहीं था बल्कि यह इस लिए भी था क्यूंकि अकबर हिंदुस्तान की दोबारा जीत को सुनिश्चित करने वाले ईरानी लोगों की मदद के ऋण को चुकाना चाहता था। साथ ही वो यह भी कहते हैं कि सफवीयों के अधीन ईरान बहुत ही कट्टर शिया धर्म को परश्रय दे रहा था तथा विरोध के स्वरों को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही थी जबकि मुग़ल हिंदुस्तान किसी भी एक संप्रदाय का पक्षधर नहीं था। अकबर सुलह-ए- कुल की नीती के अंतर्गत सभी प्रकार के संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता का वातावरण बनाने में सफल रहा था। जिससे ईरान के इन हालात में विरोधी विचारधारा रखने वाले लोगों के लिए मुग़ल भारत प्रकृतिक पनाहगाह बना हुआ था। वहीं अकबर जैसे आक्रामक एवं प्रतिस्पर्धी सम्राट के लिए ऐसी स्थिति का लाभ उठाना स्व्भविक ही था। अकबर इस बहाने अपने प्रभाव को ईरानी साम्राज्य के अंदर तक फैलाना चाहता था, जिससे मुग़लों पर सफवीयों के एहसान का जो प्रभाव था, कम हो। इस संबंध में, मुजफ्फर आलम ने सम्राट अकबर द्वारा अमीर अहमद काशी को लिखे गए एक पत्र का उल्लेख किया है जिसमें उक्त काशी से कहा गया है कि उसके द्वारा अकबर के आध्यात्मिक मार्गदर्शन को स्वीकार करना मुग़ल सम्राट के लिए बड़े हर्ष की बात है तथा भौगोलिक दूरी के बावजूद वह मुग़ल सम्राट के बहुत करीब है। साथ ही सादउद्दीन दरवेश खुसरो (नुक्तावियों के नेता) को कहा गया कि सम्राट उनके विचारों से प्रभावित है तथा उसे भी हिंदुस्तान आना चाहिए। अमीर अहमद काशी को यह भी निर्देश दिया गया कि वह सम्राट को वहाँ के हालात से पत्र के माध्यम से अवगत करता रहे ।
मुज़फ्फर आलम परिस्थिति का आंकलन बिलकुल सटीक कर रहे है, अकबर की सफ़वियों से प्रतिस्पर्धा जग-ज़ाहिर है परंतु मोइन अज़फ़र अपनी पुस्तक, मिलेनियल सोवेरैन्स: सैक्रैड किंगशिप एंड सैंटहूड़ इन इस्लाम में इस घटनाक्रम को दूसरे तरीके से देखते हैं। उनका मानना है कि अकबर उन फारसी विद्वानों को प्रश्रय देता है जो उसके स्वयम के मसीहा होने के दावे का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे। अकबर ने भी इस्लामी सहस्राब्दी (millennium) को इस्लाम के काल का समापन माना तथा कई प्रकार के आडंबर तथा दरबारी संस्कृति का निर्माण किया जिससे उसके मुजद्दीद या महदी या फिर मसीहा होने का दावा साबित हो सके। इस क्रम में वह न केवल इस्लामी दुनिया के मुजद्दीद या महदी होने की चेष्टा की बल्कि कई वैष्णव संस्कृत ग्रन्थों के फारसी अनुवाद के माध्यम से हिंदुओं के लिए भी अवतार होने का परोक्ष दावा किया। महाभारत के फारसी अनुवाद, रज़्मनामा में जिस प्रकार से अकबर के गुणों को दर्शाया गया है उससे कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है।
राजकीय भाषा के रूप में फारसी
मुग़ल भारत तथा सफवी ईरान के संबंध भले ही प्रतिस्पर्त्धा भरे रहे हों परंतु सम्राट अकबर द्वारा फारसी विद्वानों को दिये जाने वाले परश्रय ने अपना रंग दिखाया। और ईरान के विद्वानों में यह बात कहावत स्वरूप कही जाने लगी कि ‘ईरान में परिपूर्णता प्राप्त करने के साधन नहीं हैं, मेहंदी तो हिंदुस्तान आने के बाद ही रंग लाती है”।
मुग़ल दरबार में पहली फारसी रचना बाबर रचित बाबरनामा का तुर्की से फारसी अनुवाद था। अब्दुल रहीम खान खाना ने यह काम अंजाम दिया। वहीं गुलबदन बेगम रचित हमयुनामा बोलचाल वाली फारसी भाषा में लिखा गया। तज़किरा ए हुमायूँ व अकबर और तजकिरात उल वाकियात, जिसके लेखक क्रमशः बायजीद ब्यात व जौहर आफ़ताबची, किसी तरह बोलचाल वाली फारसी से अधिक अच्छी फारसी नहीं लिख पाये। अकबर अपने समय के इतिहास कि रचना फारसी में करवाना चाहता था, परिणामस्वरूप, तारीख ए अलफ़ी तथा अकबरनामा जैसे अलंकरित ग्रंथ की रचना हुई, जो फारसी लेखन के लिए आने वाली कई पीढ़ियों तक उदाहरण बना रहा। यह दोनों ग्रंथ इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि इन ग्रन्थों ने लेखन कला तथा आने वाले लेखकों के लिए एक मापदण्ड तय कर दिया।
अकबर के बारे में कहा जाता है कि भले ही वह पढ़ लिख नहीं सकता था लेकिन उसे साहित्य में बहुत रुचि थी। वह स्वयम हिन्दी तथा फारसी में कविता कर सकता था। नक़ीब खान जो पुस्तकें सम्राट को सुनाता था उनमें सबसे अधिक फारसी ग्रंथ ही होते थे। अर्थात अकबर को फारसी साहित्य की अच्छी समझ थी। अकबर के समय से ही मुग़लों के दरबार में मालिक उस शुरा (कवियों का राजा) का पद सृजित हुआ था। यह पद मुख्य रूप से फारसी विद्वानों खासकर इरानियों द्वारा सुसज्जित रहा। फयज़ी एक मात्र हिंदुस्तानी अपवाद फारसी शायर थे जिसे मालिक उस शुरा की पदवी प्राप्त हुई थी । शाहजहाँ तक के मुग़ल काल में मुख्य रूप से ग़ज़ाली, मशादी, हुसैन सनाई, तालिब अमूली, कलीम काशानी तथा कुदसी मेश्हदी मालिक उस शुरा रहे जो सब के सब ईरानी थे।
सबसे बड़ा बदलाव उस समय आया जब मुग़ल सम्राट अकबर ने क्षेत्रीय स्तर पर फारसी को सरकारी काम काज की भाषा घोषित कर दी। अब तक राजस्व संबन्धित निचले स्तर के कार्यालयों में पुराने रीति के अनुसार सारा कार्य हिन्दी में होता था। टोडर मल, अकबर के राजस्व मंत्री ने इस संबंध में अधिसूचना जारी की। राजा टोडर मल ने इस संबंध में नए गूर/कानून ईरानी नविसंदगान (कलर्क) से सीखे। बहुत सारे नए ईरानी कर्मचारियों को राजस्व संबन्धित दफ्तरों में नौकरियाँ दी गईं। और इस प्रकार बहुत सारे हिंदु—खासकर खात्री एवं कायस्थ को नई व्यवस्था में रोजगार पाने के लिए फारसी सीखना मजबूरी हो गई। जिसके लिए वे मकतबों/ मदरसों में दाखिल होने लगे। सम्राट ने मकताबों, मदरसों में उपयुक्त पाठ्यक्रम पढ़ाये जाने का इंतेजाम करवाया ताकि प्रशाशन उपयोगी कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जा सके। मीर फतह उल्लाह शिराजी के नेतृत्व में मदरसों में तार्किक अध्यन को बढ़ावा दिया जाना सर्वविदित है। खत्री एवं कायस्थ छात्रों को ध्यान में रखते हुए, प्राथमिक स्तर पर शब्दों की बनावट पर अधिक धायन दिया जाता था न कि वर्णमाला सीखने पर जैसा कि परंपरा थी। साथ ही कुछ नैतिक कहावतें एवं छंद याद कराये जाते थे जिससे फारसी भाषा के साथ साथ उसके नैतिक मूल्य भी छत्रों में अंतर्निविष्ट हो सके। उन्हें इन मदरसों में अखलाक (नीतिशास्त्र), हिसाब (गणित), सीयाक़ (अंकगणित), फलात (कृषि), मसाहात (माप), ज्यामिती, ज्योतिषशास्त्र, आकृतिविज्ञान, तदबीर ए मंज़िल (गृह-अर्थशास्त्र?/गृह-विज्ञान), सियासत ए मुदुन (सरकारी नियम), चिकित्सा, तर्कविधा, रियाज़ी (गणित) तथा अभौतिक विज्ञान (metaphysical sciences) इत्यादि की शिक्षा दी जाती थी। जबकि माध्यमिक शिक्षा में छात्रों को फारसी के जाने माने विद्वानों की कृतियाँ पढ़ाई जाती थी, जैसे—शेख सादी की गुलिस्ताँ और बोस्ताँ , नासीरुद्दीन तूसी की अखलाक ए नासीरी, जलालूद्दीन दव्वानी की अखलाक ए जलाली, मुल्ला हुसैन वाइज़ अल काशीफ़ी की अखलाक ए मुहसिन। साथ ही, इतिहास में हबीब उस सियार, रौजत उस साफा, तारीख ए गुजीदा और जफरनमा पढ़ाया जाता था बाद में अबुल फज़ल कृत अकबरनामा तथा इनशा इस पाठ्यक्रम का प्रमुख हिस्सा बन गया । माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद छात्र सरकारी सेवाओं के लिए तैयार हो जाते थे अतः वे अपनी शिक्षा इस स्तर पर छोड़ कर किसी सरकारी दफ्तर में कार्यरत हो जाते थे।
उच्च शिक्षा की ओर जाने वाले छात्र वे होते थे जिन्हें मुंशी (सचिव) बनना होता था। जिसके लिए वे विभिन्न फारसी आदाब एवं अखलाक साहित्य का आध्यन करना पड़ता था। हरकरन दास कमबोह रचित इनशा ए हरकरन तथा चन्द्रभान ब्राहमन द्वारा अपने पुत्र तेजभान को लिखे पत्र में सैकड़ों पुस्तकों का उल्लेख किया है जिससे पता चलता है कि इनशा की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को विभिन्न दर्शन में महारत हासिल होती थी। उल्लेख करने योग तथ्य यह है कि फारसी को निचले स्तर के कार्यलयों तक लागू करने के कारण छोटे स्तर के मुग़ल क्रमचरियों जैसे, मुहरीर, बीतीकची, कानूनगो, पटवारी तथा मुतसद्दीयों को फारसी सीखनी पड़ी और परिणामस्वरूप फारसी भाषा तथा साहित्य के रूप में निचले पायदान तक पहुँच गई। यह प्रक्रिया कालांतर में नए वर्गों को जन्म दे गई, कायस्थ, मुंशी तथा कानूनगो जैसे सामाजिक वर्गों का उदय इसी प्रक्रिया का परिणाम है।
एक प्रकार से देखा जाए तो फारसी भाषा दिल्ली सल्तनत के समय से ही ‘आदेश की भाषा’ से कहीं अधिक थी। सादुद्दीन मुहम्मद औफ़ी (मृ 1252), अमीर खुसरो तथा हसन सीजज़ी जैसे फारसी के विद्वान सल्तनत काल को कहीं समृद्ध बनाते हैं। साथ ही, सूफियों के 14-15वीं शताब्दी में लिखे गए विभिन्न ग्रंथ फारसी को राजकीय दरबार से बाहर भी लोकप्रिय होने का प्रमाण देते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इनमें से कई ऐसे विद्वान ऐसे थे जो क्षेत्रीय भाषाओं में भी अपने विचार कलमबद्ध किए हैं। हालांकि, फारसी राजकीय भाषा के रूप में दिल्ली सल्तनत से ले कर ईस्ट इंडिया कंपनी तक के काल में बनी रही, जिससे पता चलता है कि फारसी से अधिक उपयुक्त राजकीय भाषा और कोई नहीं हो सकती थी। दिल्ली सल्तनत के समय में फारसी को इस्लाम पूर्व ईरानी शाशकों से जोड़ कर देखा जाता था, जिनको तुर्क आदर्श शाशक मानते थे तथा उनकी नक़ल अपने राज्यों में करते थे। बलबन द्वारा राजदरबारीय कर्मकांडों में जो बदलाओ लाये गए थे वे सर्वविदित हैं। तो ऐसे सासानियों की राज संस्कृति तथा भाषा का अपनाना स्व्भविक ही था। अफ़गान सत्ता के समय जो द्विभाषीय कागजात निर्गत किये गए उनमें मात्र देवनागरी लिपि का प्रयोग हुआ है न की भाषा का। और फिर सिकंदर लोदी के समय मदरसों में हिंदुओं को भी फारसी सिखायी जा रही थी ताकि वे अफ़गानो के शाशन का हिस्सा बन सकें। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मुग़लों की उपलब्धि फारसी भाषा को निचले पायदान तक पहुंचाना मात्र थी। और वह भी इसलिए कि प्रशासन के काम काज में एकरूपता लायी जा सके। साथ यह भी कहा जा सकता है कि फारसी मुग़लों को भी रास आ रही थी क्यूंकी मुग़ल, खासकर सम्राट अकबर, नसीरुद्दीन तूसी के विचारों से प्रभावित था जिसके अनुसार (अखलाक ए नासिरी ) पादशाह एक विद्वान-पादशाह होना चाहिय जिसकी सोंच किसी संप्रदाय तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जो धर्म के प्रति पक्षपात नहीं रखता हो। मुग़ल अपनी ‘आदेश की भाषा’ को सभी प्रकार के पक्षपात से दूर रखना चाहते थे। एक ऐसी भाषा चाहते थे जो हर प्रकार के दर्शन को अपने में समेटे हो। जिसमें धर्म विशेष के लिए किसी प्रकार का पक्षपात न हो। इसी लिए फारसी के पाठ्यक्रम में प्राथमिक स्तर से ही कुछ नैतिक छंदों को याद करवाया जाता था, जिससे कि प्रारम्भ से ही फारसी की गैर-पक्षपातपूर्ण मूल्यों का निर्माण विद्यार्थियों में हो सके। फारसी के उपयोग से शिक्षा का झुकाओ माकूलात (तर्क) की ओर हुआ। फलस्वरूप कालांतर में विभिन्न वास्तुकला के नायाब उदाहरणो का निर्माण संभव हो पाया।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि मुग़लों ने फारसी का चुनाव अन्य विकल्प के होते हुए भी पहले प्रशासनिक सुविधा के लिए किया जबकि बाद में यह भाषा उनके राजकीय नीती तथा राजत्व के सिद्धान्त के अनुसार सबसे उपयुक्त भाषा होने कारण। मुग़लों ने संस्कृत का विकल्प इस लिए नहीं चुना क्यूंकी यह एक ‘देव भाषा’ थी तथा मुग़लों द्वारा इसका प्रयोग हिंदुओं के लिए दुखदायी हो सकता था जबकि प्राकृत ‘पाताल भाषा’ थी, मुग़ल इस भाषा का प्रयोग कर स्वयं को नीचा नहीं दिखाना चाहते थे। भाखा (भाषा) अर्थात, हिन्दी-हिंदवी एक क्षेत्रीय अपभ्रंश मात्र थी, इसका प्रयोग साम्राज्य के लिए नहीं किया जा सकता था, साथ ही मुग़ल ब्रज को संगीत की भाषा मानते थे। मुग़लों ने संस्कृत तथा ब्रज भाषाओं को भी पराश्रय दिया जिसका प्रमाण है कि मुग़लों को संस्कृत न आने के बावजूद वे संस्कृत प्रशास्तियों के श्रोता बने रहे। उदाहरणस्वरूप, जैन मुनि शांतिचन्द्र द्वारा रचित कृपारसकोश अकबर को संबोधित करता हुआ एक ‘प्रशास्ति इतिहास’ तथा कश्मीर में रचित असफविलास जहाँगीर के वज़ीर असफजहां के सम्मान में लिखा गया संस्कृत ग्रंथ प्रस्तुत किया जा सकता है । ब्रज एवं हिंदवी/हिन्दी के अनेक विद्वान अकबर के अनुवाद कार्यक्रम से जुड़े हुए थे। जिनमें अबदूर रहीम खान ए खानां (रहीमन) का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इसके अलावा भी कुछ क्षेत्रीय राजाओं/ अमीरों ने ब्रज में मुग़ल सम्राटों के लिए प्रशास्तियां लिखी, जैसे, केसवदास द्वारा रचित जहाँगीरजसचन्द्रचंद्रिका जहाँगीर के सम्मान में लिखी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि मुग़ल हर उस कला, साहित्य तथा सांस्कृतिक रीती रिवाजों को बढ़ावा देते थे जिससे उनके राजत्व को उच्च दर्जा मिल पाये। फारसी या फिर अन्य भाषाओं को पराश्रय भी इन्हीं कारणों से दिया जाता था।
(typographical errors may kindly be ignored)
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